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साबुन पर हाथ रख क़सम खाएँ / यश मालवीय

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कोरोना महामारी के सन्दर्भ में

क़सम उठाने वाले गीता की,
साबुन पर हाथ रख क़सम खाएँ,
इससे तो अच्छा है मर जाएँ

खिड़की-दरवाज़ों पर, परदों का,
बेपरदा नंगा सच झाँक रहा
जाँचता ग़रीबों की कॉपी जो,
कितना कुछ अपने को ढाँक रहा

ठठा रही हर तरफ़ महामारी
अपनों को खोकर, ख़ुद को पाएँ
इससे तो अच्छा है मर जाएँ

इधर-उधर करता है शव-पूजन
वक़्त ये बहुत बड़ा अघोरी है
वायरस औ' सत्ता के हाथों में
नियति-नटी की चाभी-डोरी है

अपने में क़ैद हो गए सपने
बेहोशी नींद की, तहें-ताएँ
इससे तो अच्छा है मर जाएँ

मृत्युंजय जाप अब कहाँ-कैसा
सब कुछ मणिकर्णिका हुआ सा है
कापालिक हँसी हँस रहा मौसम
बिजली का तार भी छुआ सा है

भूखे से लोग जियें बदहाली,
ऐसे में पेट हम भरें-गाएँ
इससे तो अच्छा है मर जाएँ ।