भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

काया में परछाई जैसे / राजेन्द्र राजन (गीतकार)

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:37, 16 अप्रैल 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राजेन्द्र राजन (गीतकार) |अनुवादक= |...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मौसम में पुरवाई जैसे
सूरज में गरमाई जैसे
ढकी-छुपी सी तुम हो मुझमें
काया में परछाई जैसे

नदिया को सागर का जैसे
शब्दहीन उल्लास पुकारे
किसी यौवना के पल-पल में
उम्र, सखी-सी केश सँवारे
 
बचपन में तरुणाई जैसे
होली में भौजाई जैसे
ढकी-छुपी सी तुम हो मुझमें
काया में परछाई जैसे

मन आवारा निश्छल जैसे
सुख-दुख में कुछ भेद न माने
वो सबको ही अपना समझे
भले-बुरे को क्या पहचाने

कपटी मन चतुराई जैसे
सागर में गहराई जैसे
ढकी-छुपी सी तुम हो मुझमें
काया में परछाई जैसे

मन का पंछी दिशाहीन हो
और गगन हँसता हो उस पर
कहाँ ठिकाना उसे मिलेगा
वृक्ष नही उगते हैं नभ पर

शून्य सदन तन्हाई जैसे
तुलसी में चौपाई जैसे
ढकी-छुपी सी तुम हो मुझमें
काया में परछाई जैसे ।