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नई सोच से / रामकिशोर दाहिया

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1- नई सोच से


भूँजी हुई मछलियाँ हम हैं आगी क्या! पानी का डर है ! दहरा१ नहीं मिले जीवन भर डबरे रहे हमारे घर हैं

ज्वालामुखी खौलता भीतर माटी आग भाप में पानी लावा तरल अवस्था नारे दम घोंटू सीमाएँ तोड़े सरहद नहीं बनाई कोई नई सोच से परछन पारे आँसू किये चीख में शामिल गूँगों के वाचाली स्वर हैं

वातावरण पकड़कर मुसरी भींचे और लगाकर टिहुँनी प्राणों के भी सहकर लाले सुखसागर के भ्रम को लेकर उलटी तेज धार को चीरें वही हौंसले पुरखों वाले चलो चलें कुछ देखें तनकर कौन तोड़ते लोग कमर हैं!

-रामकिशोर दाहिया

टिप्पणी : दहरा- पानी के भराव का गहरा गड्ढा।