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प्रेम-ही-प्रेम जिसके हृदय, / राजेन्द्र वर्मा
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प्रेम-ही-प्रेम जिसके हृदय,
उसके लेखे सभी ईशमय।
सत्य-करुणा-क्षमा जिसमें है,
उसके सम्मुख हुआ नत अनय।
दासता जो नहीं मानता,
पक्ष में उसके होता समय।
प्रेमवश जो पराजित हुआ,
उसकी होती सदा ही विजय।
जो मृदुल भाव छकता नहीं,
उसके हिस्से में है तल्ख़ मय।
वह तो रहता हमेशा है थिर,
एक संभ्रम है, रवि का उदय।
रस है आत्मा अगर काव्य की,
छन्द से ही सुरक्षित है लय।