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बन गए बम / रामकिशोर दाहिया

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नील नभ है
टोकरी भर
एक सूपा से धरा कम
नापना हो
नाप लें सच
है यही जो बोलते हम।

तेज हैं
झोंके हवा के
सिर उठाकर दीप जलता
जोश काजर
पारता है
शीश पर
आकाश चौखट
बंदिशों का एक घेरा
ऱोज ठोकर
मारता है
घाव पर भी
घाव खाकर
दे गया दिन साध कर दम।

नींद का
उसनींद खेमा
रीढ़ सीधी कर गया है
पाँव तक
माटी नहीं है
वर्जनाएँ
तोड़ सारी
व्यंजना की साँस खींचें
डोर है
पाटी नहीं है
राख में
चुप आग बैठी
नयन हों कैसे भला नम।

हाथ में
अनुभूतियों के
कैमरे हैं बिम्ब भोगे
कैद करतीं
दृश्य सारे
बन्द मुँह के
फिर घड़े में
डूबता दिन कसमसा कर
ऊगते हैं
चाँद तारे
आत्मरक्षा
को फटेंगे
दर्द सारे बन गए बम।

-रामकिशोर दाहिया