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ग़लत पते का ख़त / जहीर कुरैशी
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बंजारों से चले
पीठ पर लादे अपना घर
मीलों लम्बा सफ़र
योजनों लम्बा जीवन है,
लेकिन, उसके साथ
भ्रमित पंछी जैसा मन है
ग़लत पते के ख़त-से
भटक रहे हैं इधर-उधर
दूर तलक फैले मरुथल में
है असीम मृग -छल
इसको पागल मृग क्या समझे
क्या छल है क्या जल
जहाँ प्यास है
वहाँ समझ पर पड़ते हैं पत्थर
जागी आँखों के सपनों से
बचते रहे नयन
सोई आंखों के सपनों में
रमा हुआ है मन
पलकों को भाता है
तकिया, नींद, नरम बिस्तर