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नहीं मिले / सुधा गुप्ता

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न,
नहीं मिले
बहुत तलाश किये वे रंग
जो
चाँदनी से महीन
और
सुबह की धूप से नरम
हों।
जो अपनी सुकुमार आभा से
बिल्कुल वैसी
जैसी मेरा जी चाहता है,
तुम्हारी
एक तस्वीर बना दे
बिल्कुल वैसी--
जैसी मेरा जी चाहता है !
बहुत तलाश किए
पर
नहीं मिले.

नहीं मिले वे फूल
जो
अपनी सुगन्धि से
पागल बना दें
जो.
लबरेज हों शहद से
बिल्कुल:
मेरे हृदय की तरह
जिन्हें तुम्हें अर्पित कर सकूँ
बिल्कुल वैसे
जैसे
अपना हृदय तुम्हें दिया है
बिना किसी शर्त के
निर्विकल्प...निष्काम !
न,
नहीं मिली
बहुत तलाशी
पर क्‍
नहीं मिली
वह लौ दीप की
मुझ-सी निष्कम्प
ज्योतित होती हो
जिसके उजाले में
तुम्हें देख लूँ
तुम तक आ जाऊँ
जैसे
खुद अपने उजाले में
तुम्हें
 देखती-पहचानती हूँ
बहुत तलाशा
पर
कुछ नहीं मिला
मेरे पास
न रंग हैं
फूल
न लौ दीप की !
 सिर्फ़ मैं ख़ुद खड़ी हूँ--अकेली
रंगभरी तूलिका-मैं!
शहदीला फूल-मैं ! !

निष्कम्प लौ-मैं ! ! !

अपने से अपने में तुम्हें चित्रित करती
खुद को बिन शर्ते और समूचा तुम्हें दे डालने को आतुर
अपने उजाल में तुम्हें देखती--चीन्हती--पुलकित होती
तुम तक आती---
मैं...