भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

इसे भी जीना कहते हैं / शिवदेव शर्मा 'पथिक'

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:47, 25 अप्रैल 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शिवदेव शर्मा 'पथिक' |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पपीहा 'पी-पी' करता रहा
कोइलिया 'कू-कू' करती रही
आग मेरे हीँ प्राणों की
वहाँ भी धू-धू करती रही
आम की डालें बौराईं
प्राण के मधुवन जलते रहे
पपीहे के स्वर भी थक गए
पाँव तो मेरे चलते रहे
इसे भी जीना कहते हैं
नीम के नीचे पलते रहे