चाँद से / शिवदेव शर्मा 'पथिक'
चाँद तुम्हें कवि चाँद कहे या आसमान का शोला!
कैसे बाँधे तुम्हें छंद में गीतों में कवि भोला
ओ उपमाओं के बन्धन में चाँद बाँधने वाले!
कलियों से अंगार कभी क्या बँधते हैं मतवाले!
विहँस रहा आकाश, चाँदनी से धरती जलती है,
अंकित है मृगतृष्णा, शीतल लहर नहीं चलती है
देखा तुमने चाँद! तुम्हारे मरु मन में मृगछाया,
विष का स्वर्णिम रुप झूठ भू का मधुवन भरमाया
सुंदरता अंगार,रूप का आकर्षण जहरीला,
रूप रंग पर मिटनेवाली धरती का मन गीला!
पीला पीला चाँद! आग की जलती पीली भाषा
स्निग्ध कहो मत इसे, जलन की यह जीती परिभाषा!
रोज रात के पहले करता रवि किरणों की चोरी,
ऊपरवाला मौन, धरा पर विरहिन बनी चकोरी
कहती किरण किशोरी कवि से 'चंदा को समझा दो'
इतराये मत ज्योति किसी से लेकर यह बतला दो!
ऊपर ऊपर ज्योति भली है,भीतर भीतर काली
पूज रही छलियों को सचमुच दुनिया भोली भाली
शोषण के इस जलते वृत को भ्रम है चाँद बताना,
धोखा है ऊपरवालों की पूजा,कविता,गाना!
बस मुट्ठी भर धूल चाहिए! कविता झूमे, गाए,
वही चाँदनी, जिसको प्यासा पिये और पिलाये
और वही है चाँद, जगा दे मन का कोना कोना
सोने का यह चाँद, काल है जग का केवल 'सोना'
यहीं जिसे 'सोना' मिलता है सोने से घबराता
सोने का यह चाँद चोर है, खुद हीँ स्वर्ण चुराता
इस सोने को लेकर कोई मत श्रृंगार सजाए
वह पाना क्या पाना! जिससे तन मन धन खो जाए
जुगा जुगा सोना आँखों का सोना रुक जाता है
नहीं चाहिए हँसी कि जिससे रोना रुक जाता है
ओ प्यासों के चाँद! तृप्ति का नीर बनो तो जानें
नंगी तेरी रात, लाज का चीर बनो तो जानें
पहुँच मजारों के भीतर तो तुम्हें सुधाकर बोलें
बरसो सचमुच तो मिट्टी की गागर आज डुबोलें!
आसमान के ढ़ेले! धरती के ढ़ेले सूखे हैं,
शंकर से कह दो प्रकाश के अलबेले भूखे हैं
हे शंकर की जटे तुम्हारे आगे जलता टीका
नीचे पावन गंगा, ऊपर विधु क्यों झूठा,
फीका?
घुटने मत दो न्याय, तुम्हारे सिर का चन्दन मैला?
नीलकंठ का मस्तक मणि का जलता रूप विषैला
सत्य और शिव को सुंदरता का संसार बता दो
टुकड़े कर दो चाँद, इसे घर घर का दीप बना दो
नीचे उतरो चाँद कि जैसे गंगा उतर रही है,
अयि! झिलमिल ज्योत्सने,आग से धरती सिहर रही है
नभ के बूढ़े चाँद! उमर के अनुभव भी बतलाना
कभी सुना है तुमने घायल मजनू का अफसाना!
देखा तुमने कभी शमा पर परवानों का आना!
देखा है सागर के ज्वारों का ठुकराया जाना?
विकल चकोरी जनम जनम के सपने रही सजाती
अंधे हो क्या चाँद! लाज भी तुमको देख लजाती
हँसों न हमपर इंदु, दाँत के तारे झड़ जाएंगे
गर्व करो मत हम उपग्रह पर चढ़कर आ जाएंगे
देख रहे हो नीचेवाले उड़ते हैं ऊपर भी?
अपना चाँद बना लेने की क्षमता है भू पर भी
गढ़ने को विज्ञान तुम्हारा प्रतिद्वंद्वी अभिमानी
अपना नूतन चाँद धरा पर बुला रही युगवाणी!
ओ पूनो के चाँद! अमावस से घबराने वाले!
बना रहे हैं अमिट पूर्णिमा जगती धरती वाले!
तू भादो की तिमिर निशा में क्यों न किरण बरसाते?
शक्ति अगर है, तो अम्बर में रोज नही क्यों आते?
सहम सहमकर बढ़ना कैसा,घबराकर घट जाना!
इससे सुंदर मान प्रतिष्ठा के चलते मिट जाना
अवसरवादी चाँद! तुम्हारा रूप बड़ा कोमल है
चंदा मामा दूध भात दो कहकर धरा विकल है!
मगर मनुज तो चाह रहा है, तुम तक उड़कर जाना,
भूखे होगे चाँद तुम्हें अब मानव देगा दाना
एक भिखारिन घरती जिसके बेटे चाँद बनाएँ,
चाह रहे हैं हम प्रकाश का अक्षय पर्व मनाएँ!
सुन लेना ओ चाँद! कि मानव तुमसे भी गर्वीला,
बना रहा संसार धूल पर असली चाँद छबीला!
नया जमाना,नए गीत हैं, कवि का चाँद नया हो,
अपना चाँद वही जो अपने मन में समा गया हो!