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रोकती हैं टंगियाँ/ रामकिशोर दाहिया
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लीलने पुरखे लगा
अजगर हुआ है
घर-बसेरा
गांँव भीतर का
निकलकर
खोजता भटका सवेरा.
छोड़ आँगन
गांँव-घर का
एक झंझावात शहरी
साथ ले
जीने लगा हूंँ
हाथ में अपने सहेजे
चीथड़ा
मिरजाइयों को
बैठकर सीने लगा हूंँ
सूत-सूजी में
विरासत
फिर फंँसाकर टांँक घेरा.
नापते कद
और भी घटने
लगे विस्तार घट के
और मैं
बढ़ता रहा हूंँ
रोकती हैं टंगियाँ
पर! बाद इसके
उन्नयन की सीढ़ियांँ
चढ़ता रहा हूंँ
जागता मन का
कलाविद
दूर करने को अंँधेरा.
-रामकिशोर दाहिया