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चेतना जागी / कृष्ण शलभ
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चेतना जागी
समय जागा
पारदर्शी हो रहे
परिदृश्य में सपने
कल तलक जो गैर थे
लगने लगे अपने
अर्धसत्यों का अन्धेरा
हार कर भागा
अब नहीं पड़तीं
सुनाई वर्जनाएँ
हर तरफ देतीं
दिखाई सर्जनाएँ
अब तो है निर्माण में
आगत बिना नागा
जो तिरस्कृत थे
वही सब खाते हैं
अब सभी के मन
सभी के पास हैं
जुड़ गया फिर से अचानक
नेह का धागा