भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बाबुल का आँगन / संजीव 'शशि'

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:00, 7 जून 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=संजीव 'शशि' |अनुवादक= |संग्रह=राज द...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ठहरो कुछ पल और देख लूँ,
मैं बाबुल का आँगन।
जिस घर मैंने जन्म लिया है,
जिस 'कर' बीता बचपन॥

जिस घर मेरा बचपन बीता,
जिस आँगन में खेली।
गुड्डे-गुड़िया खेल-खिलौने,
पाये संग सहेली।
जाते-जाते इन यादों से,
भर लूँ अपना दामन।

छूट रहा है माँ का आँचल,
छूट रहा बाबुल का प्यार।
छूट रही भाई की उँगली,
छूट रहा उसका मनुहार।
छूट रहे ममता के रिश्ते,
टूट रहा हर बंधन।

फिर से गले लगा ले बाबुल,
जाने फिर कब आऊँ।
मैं तेरे आँगन की बुलबुल,
जाने फिर कब गाऊँ।
याद मुझे कर लेना बाबुल,
जब भी बरसे सावन।