भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
लाल चुनरिया ओढ़ चली / संजीव 'शशि'
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:28, 7 जून 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=संजीव 'शशि' |अनुवादक= |संग्रह=राज द...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
नयनों में स्वप्न सलोने से,
मैं लाल चुनरिया ओढ़ चली।
अनजाने के सँग भाग जुड़े,
बाबुल की गलियाँ छोड़ चली।।
जिस घर में मैंने जन्म लिया,
लगता था यह घर मेरा है।
जब हुई सयानी तब जाना,
यह तो बस रैन बसेरा है।
जिन गलियों में बीता बचपन,
उन गलियों से मुँह मोड़ चली।।
अनजान नगर, अनजाना घर,
अनजानों को है अपनाना।
दो कुल की मर्यादा लेकर,
अनजान डगर पर है जाना।
इस देहरी से उस देहरी के,
संबंधों को मैं जोड़ चली।।
खुशियों के पल आये फिर भी,
भीगा है नयनों का काजल।
बाबुल की उँगली छूट रही,
है छूट रहा माँ का आँचल।
पल भर में बीते रिश्तों से,
मैं मोह के बंधन तोड़ चली।।