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पीर नहीं बदली / संजीव 'शशि'

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युगों-युगों से माना है मुझको पूजित।
फिर भी अपने मन की है कहना वर्जित।।

देवों ने जब मुझको छला यहाँ आकर।
मुझको ही दोषी ठहराया था आखिर।
नहीं किसी ने जाना क्या मेरे मन में-
कर डाला था मुझको नारी से पत्थर।
अब भी मन में रहतीं हैं आशंकाएँ,
कौन घड़ी कब कौन कहाँ कर दे शापित।।

समय-समय पर बदली है सबकी भाषा।
एक कर्म पर अलग-अलग है परिभाषा।
यदि पति रहे अकेला मौन समाज रहे-
पर पत्नी से अग्निपरीक्षा की आशा।
बादल छाये रहते हैं संदेहों के,
चाहे मैं कर दूँ अपना सब कुछ अर्पित।।

द्रुपद सुता हो राधा या मीरा पगली।
युग बदले हैं लेकिन पीर नहीं बदली।
रहा आचरण खुद का कितना भी मैला-
किन्तु चाहिए नारी है सबको उजली।
अपमानित होकर भी मैंने जन्मों से।
पीड़ा सह निज कोख किया इनको रोपित।।