भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बिटिया पापा बोले / संजीव 'शशि'

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:33, 7 जून 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=संजीव 'शशि' |अनुवादक= |संग्रह=राज द...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मेरे कानों में लगता ज्यों, वह मिसरी-सी घोले।
बिटिया जब-जब पापा बोले।।

जब बाहर से वापस आऊँ,
दौड़ी आये द्वारे।
लगता जैसे खड़ी हुई हो,
ममता बाँह पसारे।
मुझे देख करके फिर उसका, हँसना हौले-हौले।
बिटिया जब-जब पापा बोले।।

जैसे भी मैं रखना चाहूँ,
वह वैसे रह जाये।
मेरे कम में भी वह हँसकर,
ज्यादा का सुख पाये।
अपने मन की मन में रखकर, नहीं जुबाँ वह खोले।
बिटिया जब-जब पापा बोले।।

बिटिया तेरे पापा का घर,
तेरा रैन बसेरा।
कल सब रिश्तेदार कहेंगे,
यही समय का फेरा।
मेरी ममता के पल छिन को, अंतर आज सँजोले।
बिटिया जब-जब पापा बोले।।