भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वेतन लेकर घर आया / संजीव 'शशि'

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:47, 7 जून 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=संजीव 'शशि' |अनुवादक= |संग्रह=राज द...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एक माह की कठिन तपस्या,
तब जा कर है फल पाया।
मैं वेतन लेकर घर आया,
मैं वेतन लेकर घर आया।।

खुश होकर बच्चे झूम रहे,
मेरे पापा कब आएँगे।
मन ही मन घरवाली सोचे,
वह मुझको कहाँ घुमाएँगे।
सब दौड़े द्वारे पर आये,
जब दरवाजा खटकाया।

गिनते ही गिनते खत्म हुआ,
वेतन कपड़ों में, रोटी में।
शायद ज्यादा सुख लिखा नहीं,
है मेरी किस्मत खोटी में।
कुछ पल को घर आयीं खुशियाँ,
फिर चेहरा है मुरझाया।

हौले से बिटिया बोल रही,
पापा बैठे गुमसुम कैसे।
मेरी खातिर कुछ मत लाना,
ले लो गुल्लक के सब पैसे।
उसकी भोली बातें सुन-सुन
कर मेरा मन भर आया।
कितनी आशाओं को लेकर,
मुझको देखें मेरे अपने।
कैसे पूरे कर पाऊँगा,
मैं सोचूँ अपनों के सपने।

फिर देखूँगा अगले वेतन,
फिर अपनों को बहलाया।