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वेतन लेकर घर आया / संजीव 'शशि'
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एक माह की कठिन तपस्या,
तब जा कर है फल पाया।
मैं वेतन लेकर घर आया,
मैं वेतन लेकर घर आया।।
खुश होकर बच्चे झूम रहे,
मेरे पापा कब आएँगे।
मन ही मन घरवाली सोचे,
वह मुझको कहाँ घुमाएँगे।
सब दौड़े द्वारे पर आये,
जब दरवाजा खटकाया।
गिनते ही गिनते खत्म हुआ,
वेतन कपड़ों में, रोटी में।
शायद ज्यादा सुख लिखा नहीं,
है मेरी किस्मत खोटी में।
कुछ पल को घर आयीं खुशियाँ,
फिर चेहरा है मुरझाया।
हौले से बिटिया बोल रही,
पापा बैठे गुमसुम कैसे।
मेरी खातिर कुछ मत लाना,
ले लो गुल्लक के सब पैसे।
उसकी भोली बातें सुन-सुन
कर मेरा मन भर आया।
कितनी आशाओं को लेकर,
मुझको देखें मेरे अपने।
कैसे पूरे कर पाऊँगा,
मैं सोचूँ अपनों के सपने।
फिर देखूँगा अगले वेतन,
फिर अपनों को बहलाया।