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ताक रही हैं हमें निरंतर / रूपम झा
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ताक रही हैं हमें निरंतर
खंजर-सी लगती हैं आँखें
गली-गली की हवा ज़हर है
हर नुक्कड़ से लगता डर है
अब इतने भयभीत शहर में
कैसे हम सच्चाई आँकें
जो चिड़िया कल थी उड़ान में
चहक रही थी आसमान में
आज वही लाचार पड़ी है
कटी मिली हैं उसकी पाँखें
ऐ चिड़िया कुछ करना होगा
स्वयं कुल्हाड़ी बनना होगा
जिस दरख़्त से भय लगता हो
काटो मिलकर उसकी शाखें।