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पाँव जाते हैं ठहर / संजीव 'शशि'
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देहरी पर प्रीत की, क्यों पाँव जाते हैं ठहर।
क्या कहूँ, कैसे कहूँ, क्यों थरथराते हैं अधर॥
रात भर तुमको निहारूँ,
चाह नयनों में जगी।
कुछ करूँ, कुछ हो रहा है,
ये लगन कैसी लगी।
क्यों डुबोते जा रहे हैं, कामनाओं के भँवर।
कर रहा हूँ रतजगा,
तुमसे मिलन की आस में।
हो रहा आभास ऐसा,
तुम यहीं हो पास में।
अनकहा सुख दे रही है, प्रीत की उठती लहर।
एक अभिलाषा यही,
तुम हाथ दे दो हाथ में।
हर घड़ी, हर पल बिताऊँ,
मैं तुम्हारे साथ में।
बाबरा मन चल पड़ा है, एक अनजानी डगर।