भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ग़ज़ल में जो अनर्गल कह रहा है / भाऊराव महंत
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:07, 7 जून 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=भाऊराव महंत |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
ग़ज़ल में जो अनर्गल कह रहा है।
नहीं कुछ भी मुकम्मल कह रहा है।
कहा जिसने बुरे को हो बुरे तुम,
वही सच आज हरपल कह रहा है।
ज़माने में बड़ा नादान है वो,
जो अश्क़ों को महज जल कह रहा है।
सिखाया था जिसे, काका कहेगा,
मगर मुझको वो अंकल कह रहा है।
तरक़्क़ी कर रहा विज्ञान इतना,
गगन को ही धरातल कह रहा है।
ज़रा सी सीख ली क्या होशियारी,
वही औरों को पागल कह रहा है।
नहीं उस्ताद हो सकता ग़ज़ल का,
अरे खुद को जो अकमल कह रहा है।