नारी मुक्ति के द्वार / सुदर्शन रत्नाकर
पर्वतों को भी छू लिया तुमने
सागर की गहराई को भी नाप लिया
अंतरिक्ष में गाढ़ दिए हैं झंडे
ऊँची उठी हो हर क्षेत्र में
कठिन डगर पर भी आगे बढ़ी हो
छोड़ आई हो पीछे उस अबला नारी को
जिसकी आँखों में बस आँसू थे और
आँचल में थी पीड़ा।
इसी भ्रम में जीने लगी हो कि
तुमने पा ली हैं सब उपलब्धियाँ,
पर कभी सोचा है, तुम आज भी अभिशप्त हो
शोषित हो, उत्पीड़ित हो
आज भी बंदिनी हो, क्योंकि
पुरुष समाज के बनाए नियमों में बँधी हो।
कहीं दहेज के नाम पर जलाई जाती हो
कहीं परकीया दुख से सताई जाती हो
आजन्मी मारी जाती हो तुम
कितना सहती हो अत्याचार
तिल तिल कर मरती हो
जब होता है तुम्हारा बलात्कार
पुरुष की बीमार मानसिकता की होती हो शिकार।
आज भी अहल्या की तरह छली जाती हो
लगाई जाती है तुम्हारी नुमाइश
बाज़ारों में बिकती हो।
प्यार पर भी तुम्हारा नहीं है अधिकार
जातिवाद के ढकोसलों और
रूढ़िवादिता की डोरी से
फाँसी पर लटकाई जाती हो।
झेलती हो बाल विवाह का नारकीय जीवन
ललना बन करती हो पुरुष का मनोरंजन
तब तुम माँ, बहन, पत्नी नहीं
केवल भोग्या होती हो।
जब सहती हो उस यौन शोषण को
तब तुम्हारा तन नहीं, मरता है मन हर बार।
पर तुम्हें मरना नहीं, जीना है सिर उठा कर
और इसके लिए तुम्हें स्वयं खोलने होंगे
नारी मुक्ति के द्वार
बनना होगा तुम्हें आत्मद्रष्टा
स्वयं बनानी होगी अपनी पहचान