भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मुखौटे / सुदर्शन रत्नाकर

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:11, 16 जून 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुदर्शन रत्नाकर |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं अपनों में
अपने को ढूँढ़ती रही
पर न मुझे अपने मिले
न मैंने अपने को ढूँढ़ा
मिला तो मन का ख़ालीपन
और हृदय की संवेदनहीनता,
पीड़ा की अनुभूति और
अवसाद के घूँट
जिसे पीकर मैं ढूँढती रही
अपने को
अपनों की भीड़ में।
एक आशा की डोर में बंधी
मुखौटों की दुनिया में
तलाशती रही अपने को
पर मुखौटे लगाए तो
वे छल रहे थे
अपने को भी और
अपनों को भी।
हम छलते रहे
और छलावे में रहे
और जीवन यूँ ही सरकता रहा
नदी के पानी की तरह
फिर कभी न लौट आने के लिए।