तुम कहते हो / सुदर्शन रत्नाकर
माँस, मँजा रक्त से सींच कर
मैंने तुम्हें जन्म दिया
गीले पर सोई और सूखे पर
तुम्हें सुलाया
अंगुलि पकड़ कर
पाँव पाँव चलना सिखाया
और तुम कहते हो मैं अबला हूँ।
जिस आँगन में पल्लवित हुई
उखाड़ कर दूसरे आँगन में रोपी गई
मैंने उसे पूरे मन से स्वीकारा
उस आँगन को भी सँवारा
अपना अस्तित्व खोकर
रात रात भर जागी
और तुम्हें पलकों पर बिठाया
उफ़ नहीं की और अपना प्यार लुटाया।
दोहरी ज़िंदगी जी कर भी
ख़ुश रहती हूँ
और तुम कहते हो मैं अबला हूँ।
दुर्गा, काली, आदि शक्ति हूँ
अहिल्याबाई, झाँसी की रानी भी हूँ
सुनीता, कल्पना बन ऊँची उड़ान भरी
ऊँचे शिखरों को भी छुआ मैंने
और तुम कहते हो मैं अबला हूँ।
धरा की तरह तपती हूँ
सावन की बूंदों-सी बरसती हूँ
सागर-सी गहरी हूँ
अमृत बाँटती, विष पीती हूँ
और तुम कहते हो मैं अबला हूँ।