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पल कम तो नहीं / सुदर्शन रत्नाकर

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अस्तगामी सूर्य की चंद किरणें
जब मेरे कमरे की खिड़की से
भीतर आती हैं तो

उजाले से भर जाता है कमरा
चलो क्षण भर के लिए ही सही
किरणें आती तो हैं
न आने से कहीं अच्छा है

मेरे कमरे का उजाले से भर जाना।
बस ख़ुशियाँ भी तो ऐसी ही होती हैं
मन के किसी कोने में जब आती हैं तो
लगता है

सारा का सारा आसमान उतर आया है और
मेरे अंतस में समा गया है।
मैं कितने सितारे तोड़ सकती हूँ
चाँद की कितनी मधुरता को
आँखों में बंद कर पाती हूँ
उसकी उज्ज्वलता को
कितना उतार लेती हूँ

शीतलता के घूँट पी सकती हूँ।
यह मुझ पर निर्भर करता है
वरना दुखों के पल कम तो नहीं।
देखो न, प्रचंड सूरज की किरणों को

झीनें से बादल भी रोक लेते हैं और वो
नहीं दे पाता उजास संसार को
अंतत: बेबस हो छिपा रहता है
समेटे ऊर्जा को।