भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

देहरियों का दस्तूर / विमलेश शर्मा

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:08, 17 जून 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विमलेश शर्मा |अनुवादक= |संग्रह=ऋण...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हथेली पर नरम छुअन के साथ
तुमने होठों से, रख छोड़े थे
कुछ कपासी-नरम नवजात शब्द!

उनकी धड़कनों का स्पंदन अब तक ठहरा है, ह्रदय संपुट में!
मैं उन्हें देर तक महसूस करती रही,
और ड्योढ़ी पर बुत-सी खड़ी रही।
तुमने कहा
मैं आकाश बनना चाहता हूँ
सिर्फ़ तुम्हारे लिए
और बादलों के ही साथ
देना चाहता हूँ, अनगिनत सौगातें
जैसे कि कोई कोमल प्रार्थना लिपटी हो बारिशों में
बिना किसी नियम, रस्मों-रिवाज के
सजल आँखें तुम्हारे काँधे पर टिक
इतना ही कह पाईं थीं...
तुम्हें सच ही कुछ लाना है तो
ले आओ, वह चंद पल
जो चमकती रोशनियों से भरे हों
और जिनमें तुम्हारा नेह
माथे पर सावन-सा बरसता हो
टुपुर-टुपुर!

तुम्हें लौटना था
और तुम लौट गए चुपचाप
लौटना तुम्हारी नियति थी, शायद!

मेरे पास रह गए, मेरी नियति बन
कुछ शब्द
उनकी ठिठकी प्रतिध्वनियाँ
नरम छुअन
और उन्हें सहेजती मैं!

तुम्हें मालूम है, वह देहरी मेरे हाल पर उदास है, अब तलक!