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देह-विदेह - 3 / विमलेश शर्मा

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हालाँकि चाहना द्वैत की माया है!
पर नेह भरी आँख में अपनी छब देखनी हो
किसी कृष्ण को अपना रथी बनाना हो
तो "यतो धर्माः ततो जयः"
का नियम काम करता है!
छल, बनावट और
झूठ वहाँ स्वतः ही दूर छिटक जाते हैं

मुखर अवस्था में आकर्षण के नियम इस लौकिक प्रमेय में ध्रुववत् होते हैं
ग़लत है यह कहन कि
पौरुष, कमनीयता और बौद्धिकता
प्रेम के हेतु हैं!

वहाँ जागतिक बौद्धिक चातुर्य नहीं
सात्त्विक एकांत चाहिए
तनिक धैर्य, तरल सारल्य चाहिए
अर्जुन-सा समर्पण चाहिए

आँख से एक आँख देखने के लिए
सृष्टि सर्जन के लिए!

प्रेम और किसी जीवन को करीब से देख रहे हो तो जान लेना
उस पथ पर सही बढ़ रहे हो
जिसे इस जगत् में नीर, व्योम, धरा, अग्नि, बयार से परे
प्रकाशयात्रा कहा जाता है।