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ख़ुदसफ़री - 2 / विमलेश शर्मा

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दुनिया उथली अधिक है
गहरी बनिस्बत कम
उनींदी नींद में यही ख़्याल करवट ले रहा था!
दूर शफ़क शबाब पर था
सामने एक वृक्ष
और उससे झरते पत्ते अनगिनत!
कुछ राहगीर गुज़र गए
राह पर गिरते फूलों को देख, अदेखा कर
कुछ बैठे रहे उस तने पर
पीठ सटाए देर तलक!
एक शख़्स की गोद में मुट्ठी भर अक्षर थे
हाथों में रोशनाई!
वह टूटता वीराना समेट चुप था
झरने में खिलने को देख
रोते हुए मुस्करा रहा था
दूर आसमान से कोई आवाज़ आ रही थी
झरने में खिलने को देखना ही
गहराई है!