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सप्तपदी / विमलेश शर्मा

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एक मन्नत का धागा
इच्छाओं में अटका था
उसे तुम्हारी कलाई पर बाँध
एक इच्छा से मुक्ति पाई थी
तुम तपाक कह उठे थे
कि मुझे बंधन पसंद नहीं!
मेरी आँखों में प्रत्युत्तर था
पर उसे समझना कहाँ आसान था
मैंने उसे सहेजा अपने ही भीतर
तुम्हें पाकर
असंख्य पराई इच्छाओं के जंगल में खड़ी हो गई
मैं चलती रही सप्तपदी की तरह
तुम्हारा हाथ थाम
उन पगडंडियों पर
जो शाश्वत थीं
पर मेरे लिए वर्जित थीं!
एक समय की बात है
किसी माँग पर एक आशीष उगा था
कोख में एक शिउली फूल
ओस-सी चमक आँखों में
और होंठों पर नमी
अब ये बातें किसी इतिहास में दर्ज़ हैं!