अठहत्तरवां पन्ना / संदीप निर्भय
कितने दिनों बाद आज गाँव आया हूँ
यह ख़ुद को ही नहीं मालूम
जैसे ही
हाथों में बैग, चेहरे पर मुस्कान लिए
गाँव के चौपाल के बस स्टैंड उतरा
तो देखा
जिस खेजड़े तले रात-दिन होती थी बातें
तासों के साथ-साथ
लगते थे ठहाके
पखेरूओं की भाषाओं का किया करते
यादों की कथरी सिलते हुए
बुज़ुर्ग लोग अपनी बोली में अनुवाद
अब वहाँ दो-तीन गायें जुगाली कर रही हैं
कर रहा है एक गधा लीद
सांगरी तोड़ने वाला कोई नहीं है
सो पककर
युगों की तरह खिर रही हैं
खेजड़े तले
प्लास्टिक पहने, कफ़न ओढ़े पड़ी है गाँव की लाश
खेजड़ा रो रहा माँ बायरे बच्चे की तरह
उसके आँसुओं की बूँदें
टप-टप-टप
पड़ रही हैं लाश के सिर पर
आपसी संवाद
हिय का हेत
मरघट में जलकर राख हो गए
जब सब लोग कर रहे राजा के हुक्म का पालन
तब दक्षिण से उड़कर आई
कटी पतंग की छुअन नें
बूढ़े खेजड़े को दी थावस
आँसू पोंछता हुआ
शुक्रिया अदा कर पतंग से बोला
जिस तरह बनिया लोग अपनी बही-खातो में
छोड़ते आये थे छप्पनवां पन्ना खाली
उस तरह कहीं
भविष्य में अठहत्तरवां पन्ना खाली न छोड़ना पड़े!