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राग-विराग - 3 / विमलेश शर्मा
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मन की थाह
हर्फ़ नहीं ले पाते अक़सर
उसे बूझने कि लिए
लिखने के लिए
जीवन दीठ ज़रूरी होती है!
मन मौला
मन रसिया
मन क़ारी
मन अदीब
मन ही ठोकर
और
मन ही चारागर!
कुछ इबारतें जम गई ज़ेहन में
कुछ तहरीरें बन गईं लौट-लौट संसार में
जो गुना
कहा नहीं जा सकता
जो कहा
कुछ अधूरा छूट जाता
यूँ यात्रा चलती रही
कुछ हर्फ़ों ने फ़िर कहा
स्वभाव की उपलब्धि अयात्रा में है
और यों जीवन चलता रहा
हम ठहर गए
किसी कीमिया
किसी भीतरी रसायन की खोज भर में
क्योंकि संन्यास कहीं है तो संसार में ही!
लाओत्से ने इसीलिए कहा है
संत दिन भर यात्रा करता है
और फिर भी यात्रा नहीं करता!
और
इसीलिए बुद्ध गाँव-गाँव भटकते हैं
पर चलकर भी नहीं चलते
और नदियाँ बहकर भी
थिर ही रह जाती हैं!