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अदहन / विमलेश शर्मा

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पत्तियों के झुरमुट से
विलग होता दल
कितना निस्पृह होता होगा !
है न!

डाल से टूटन को सहेजता
निस्संग पर दरकता हुआ!
धरा ही सुनती है सीत्कार
सहेजती है उसकी निष्प्रभ देह

हवा थपकी देती है
और दो आँखें मुँद जाती हैं
परिवर्तन नियम है सुंदर
कुछ जुड़ता है, कुछ छूट जाता है

विलग जुड़कर
समयांतर से फ़िर बनता है
अदहन धरा के गात का !