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पगडंडियाँ / विमलेश शर्मा
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कोई पगडंडी
उभरती है स्वप्न में
जाग से उड़ती है धूल
पगडंडी मद्धम हो गुम जाती है
किसी टूटते तारे की छूटी हुई लकीर की तरह
बणजारा यादों के बीच
रेगिस्तान के पारावार बीच ख़ुद को पाती हूँ
आदिम धुन पर
रोमा जिप्सियों-सी नाचती हूँ
देर तक चलने के बाद
धोरों में धुँधले हो चुके समुद्र में
वज़ूद तलाशती हूँ
एक मध्यम स्वर उभरता है
धूल के गुबार के बीच कोई दूर गुनगुनाता है
चिह्ना सत्ता को जाता है
पगडंडियों का कोई इतिहास नहीं होता!