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लिखना प्रेम धूप रोशनाई से / विमलेश शर्मा

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प्रेम!
कितना मीठा है ना यह शब्द
मिसरी की डली सरीखा
पर प्रेम को जी सको
उससे पहले कुछ ताप सहना सीखना

जानना कि
प्रेम में हिस्सेदारियां नहीं होती
नही होती सच-झूठ की महीन लकीरें
वो आँखों बोलता है
और घुलता है
शहद की मानिंद
सांस के विलोम में नि:शब्द !

प्रेम देह के हरसिंगार से नहीं
वरन् कोमल भावनाओं से करता है शृंगार
डूबता उतरता वो थामता है
प्रिय की कचनार स्मृतियों को
उसकी अनुपस्थिति में भी
प्रेम करो तो जानना कि
यह नही होता

महज़ किसी रिक्तता को भरने
या कि रवायतों की रस्मी चादर ओढ़
क्षणिक इच्छाओं की पूर्ति हेतु
सांसों की डोर-सा महीन यह
आस की पूली से उपजता है
भावनाओं के धानी रंग से निखरता है
जन्मता है टूटकर
बिखर कर फ़िर-फ़िर सँवरता है
फरवरी के इन्हीं सतरंगी दिनों की तरह
सुनो!
प्रेम करो तो लिखना इसे शब्द-दर-शब्द
जनवरी की सर्द पीठ पर
धूप रोशनाई से
किसी मोम छाँव तले!