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अपनी माटी और हवा / सुदर्शन रत्नाकर
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नव संवत्सर के प्रभात की
प्रथम किरण की अलौकिक आभा
फैलती है जब
महक उठती है मेरी धरती
इठलाने, मुस्कुराने लगती है
नई आशाओं का जगता है संसार
भिन्न परम्पराओं, भिन्न आस्थाओं का
भीतर ही भीतर
एक लम्बा इतिहास छिपाये
हम में भरता है सुखद संस्कार।
पर पश्चिम की चकाचौंध में
भूल गए हैं
अपनी संस्कृति, अपनी पहचान
तभी तो विस्मृत कर बैठे हैं
अपने देश का नया साल
आओ हम लौट आएँ
पूर्वजों की धरोहर को सम्भाल लें
खोलें बंद वातायन
अपनी माटी, अपनी वायु में घुलमिल जाएँ।