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नई नींव / सुदर्शन रत्नाकर
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टूटती रही मैं
कच्ची दीवार की तरह
जिसका जी चाहा ठोकता रहा
कीलें मेरे अंतस्तल में
और मैं सहती रही।
इश्तियार वह लगाता रहा
अपने होने के
और
छीजती मैं रही।
सहा सदियों उन नुकीली
कीलों का दर्द
की उफ़ तक नहीं, पर
होने लगा जब दर्द बेइंतहा
तब चीखी मैं।
कब तक सहती
चीखना तो था
और मेरी चीख की गूँज सुनाई देने लगी
बहरे कानों में भी
गूँजने लगीं और चीखें, और आवाज़ें भी
मेरी आवाज़ के साथ-साथ
इसलिए
खोद रही हूँ नई नींव
और बना सकूँ
उस पर एक पक्की दीवार
ताकि कच्ची दीवार की तरह उस पर कोई
कील न ठोक सके
बस मैं रहूँ और रहें मेरे अहसास।