भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दफ़्तर / पंछी जालौनवी
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:28, 24 जून 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=पंछी जालौनवी |अनुवादक= |संग्रह=दो...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
फाईलों में उलझे रहना
अच्छा लगता था
दफ़्तर के उस माहौल में
जीना अच्छा लगता था
पांच बजे चाय
इसकी भजिया, उसकी कॉफ़ी
कभी कभी समोसा
ख़ुद भी मंगाना पड़ता था
बड़े बाबू की डांट सुनना
मैडम के सवालों पे
अपना सर धुनना
ये सब चलता रहता था
दफ़्तर के उस माहौल में
जीना अच्छा लगता था
काम जिसका करना होता था
उसी को काम बता देते थे
इस पेपर को
उस टेबल पर ले जाओ
बाक़ी फाईल इधर ले आओ
इस पेपर पर मुहर नहीं है
साहब ऑफिस में नहीं हैं
अगले हफ्ते आना फिर देखेंगे
ऐसा कुछ कहकर समझा देते थे
ज़्यादा कोई ज़िद करे तो
खरी खोटी सुना देते थे
सोच के ये सारी बातें
मन बहुत दुखता है
इस तालाबंदी में भी
दफ़्तर ज़हन में रोज़ खुलता है॥