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किसान / पंछी जालौनवी
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अपना बदन उधेड़ के
ख़ुद अपने हाथों से
ज़मीं के आँचल पे
हरयाली टांक देते हैं
रूखी सूखी खा के
पानी पी लेते हैं
अनाज का एक-एक दाना
बांट देते हैं
किसान
फिर कुछ ऐसे दब जाते हैं
अपनी ज़रूरतों के बोझ में
कि जिस्म की
बोसीदा दीवारों पे
ख़ुद बख़ुद उगने लगती हैं
उकताहटों की घांस फूस
वादों उम्मीदों
और तसल्लीयों की
अफीम का नशा
धीरे धीरे उतरने लगता है
ज़िन्दगी की कमर
झुक जाती है
आस टूट जाती है
जीने की आदत
छूट जाती है॥