भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

इकलौता नायक / अशोक शाह

Kavita Kosh से
वीरबाला (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:43, 26 जून 2021 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पिता ही मेरे पूर्व जन्मों की कहानी है
जितना वे जी पाए
उतना ही जिया मैंने भी

एक वृक्ष थे पिता
अडिग और प्रवाहमान
उनके हौंसलों में घुसकर बनाए हमने
छोटे-छोटे घोंसले
लम्बी उड़ानों के लिए

वे नदी की तरह बहते थे
हम उसमें नहाते, आचमन करते
और पी लेते थे उनको
वे बोतल में बन्द कभी न रहे
और बाज़ार उन्हें खरीद न सका

आसमान का घर थे पिता
हम जगमगाते थे उनके भीतर
चाँद-सितारों की तरह
हम नये नक्षत्र उनके
जन्में थे अभी-अभी

पानी की तरह तरल थे
आकाश की तरह विरल
जब भी चढ़ती धूप, तपती धरती
नीम की छाँव की तरह घने हो उठते थे

पिता हवा की तरह चलते थे
गर्मी में शीतल बयार लगते
जरा-सी उमस में जब चमचमा
आतीं पसीने की बूँदें
हमारे ललाट की क्षितिज पर
तब बारिश की तरह बरस जाते
पिता थे

समुद्र-सी अकुलाहट को शान्त करते
छाती जब भी उदासी
और रिक्त होने लगता मन
वे मरुत की तरह दौड़ आते
हर दिशा से

सिखाया उन्होंने धरती पर कभी न रुकना
यह तो लगातार घूमती और नाचती है
आने वाले तारों के लिए
पृथ्वी की अनूठी गति से ही पैदा होतीं
गेंहूँ की बालें
और निकल आते वृक्षों पर सेव के मीठे फल
उस समय की भूख के लिए

पिता जब भी होते आँखों से दूर
दृश्य से अदृश्य
वे ठिठकते थे
ढोया मैंने उस ठहराव को दुःख समझ
और धरती पर गढ़ ली मैंने ही
पीड़ा की परम्परा अटूट

पिता हमारे मोक्ष थे
वे ही जोड़ गये निर्र्जीव को सजीव से
कब हुए अंतरिक्ष
पता ही न चला

पिता आज भी हैं
मेरे पूर्व जन्मों की कहानी के
इकलौता नायक