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यह भी क्या? मुट्ठी भर यादों के साथ जिए ! / राजेन्द्र गौतम

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यह भी क्या? मुट्ठी भर
यादों के साथ जिए !

इतनी चुप रातें
किस कोलाहल से कम हैं
सन्नाटों के फैले
सरहद तक ग़म हैं
ठहरे हुए समय में
आन्धी के हाथ जिए !

हारी-थकी हवाएँ
लौटी हैं पुकारकर
सागर ने प्रश्नों का
दिया नहीं उत्तर
सब सपने झुलस गए
कैसी बरसात जिए !