भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बता ऐ ख़ालिक़ तू / उदय कामत

Kavita Kosh से
Abhishek Amber (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:20, 2 जुलाई 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=उदय कामत |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatGhazal}}...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 
बता ऐ ख़ालिक़ तू राज़-ए-कौनैन लगता मुझ को ख़ला सा क्यूँ है
दुआओं में हम्द में मुनाजातों में न मिलता दिलासा क्यूँ है

कि कोई भी ख़ाली हाथ जाता नहीं है दर से तिरे सुना था
तो हर जगह मुझको दिखता मुफ़लिस के हाथ में ख़ाली कासा क्यूँ है

न सिर्फ दैर-ओ-हरम ही में है वजूद तेरा हर इक शय में
मगर तिरे बन्दों को गिला है तू पर्दा कर के छुपासा क्यूँ है

अँधेरे में रौशनी का दावा पढ़ा है तेरी किताबों में फिर
अज़ल से उम्मत पे तेरी बढ़ता रहा ये ग़म का कुहासा क्यूँ है

ब-क़ौल-ए-ज़ाहिद है बादा-नोशी से बंदगी में ख़ुमार बढ़ के
तो छोड़ दीन-ओ-धरम को 'मयकश' शराब ही का पियासा क्यूँ है