हम कीचड़ के कवि थे / ज्योति रीता
हम राजधानी में बैठकर लिखने वाले लोग नहीं थे
हम घुटनों तक कीचड़ में धँसे लोग थे
हम धनरोपनी करते हुए लिख रहे थे कविता
गेहूं की भूरी बालियों को देख सिहर उठते थे
उसी वक्त आँखों के कोर से ढुलक आती थी कविता
सरसों के पीले फूल देखकर हमने पहली प्रेम कविता का स्वाद जाना
जंगली फूलों ने कविताओं को सुगंधित किया
कांटों में सावधानी से उन्हें स्थापित होना सिखाया
हम लकड़ी के चूल्हे पर पकने वाले भात थे
हम डेगची में सीझने वाले दाल थे
हम आग पर पकाए गए आलू, मिर्च और एक चुटकी नमक थे
हम महाजन के दिए गाली थे
हमारे लिए कोई मंच नहीं था
मंच के नीचे हमारे लिए कभी कोई कुर्सी नहीं लगाई गई थी
हम पंक्ति के आख़िर में खड़े होकर सभ्य,शालीन,
सलीकेदार कवियों से मजदूरों, दलितों,
शोषितों पर कविता सुन रहे थे
हम जेठ की दुपहरी में तपने वाले लोग थे
हम आषाढ़ के बारिश में भींगने वाले लोग थे
हम दान-खैरात में आए लोग थे
हमारा हिस्से का सुख सोख लिया गया था
हम दुखों के पीछे भागते धावक थे
हमारे माथे पर पहली पंक्ति मयस्सर नहीं थी
हम पंक्तियों के आख़िर में खड़े होने वाले लोग थे
हम असभ्य और अशिष्ट लोग थे
हमें तन भर कपड़ा जी भर खाना कभी नहीं मिला
मिले चीथड़ों पर हम रोज़ कविताएँ लिख रहे थे
हम दो जून की रोटी मुहैया करते-करते कविता लिख रहे थे
एक बैल के मारे जाने पर उनकी जगह खेत जोतने वाले लोग थे
हम लगातार खेतों में खड़े हो-होकर कविताऍं लिख रहे थे
अब वह कविता संसद पहुंचने के लिए तैयार हैं ।।