भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सावन / हरजीत सिंह 'तुकतुक'

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:58, 9 अगस्त 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरजीत सिंह 'तुकतुक' |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

लो फिर आ गया सावन।
अब छाता ख़रीदना पड़ेगा।
पर छाता किस काम आएगा।
केवल सर को भीगने से बचाएगा।

पत्नी बोली,
जेब से थोड़े से पैसे और निकालो।
इस बार रेनकोट ख़रीद ही डालो।

हमने कहा,
देवी,
रेनकोट से नहीं हल होगी परेशानी।

समझो,
सावन में,
नालों से सड़कों पर उतर आता है पानी।

शहर की सारी गंदगी,
आँखों के सामने नज़र आती है।
आके सीधे,
हमारे पैरों से लिपट जाती है।

मानो कह रही हो।
प्रगति के नाम पर,
पर्यावरण की जान मत निकालो।
अपने काम करने के,
तरीक़ों को बदल डालो।

सतत विकास नहीं करोगे।
तो कोई काग़ज़ की कश्ती नहीं चलाएगा।
सावन के नाम पे,
सिर्फ़ कचरा याद आएगा।

पत्नी बोली,
रेनकोट नहीं लाना, तो मत लाओ।
पर सावन को अंतर्रष्ट्रीय मुद्दा मत बनाओ।
ख़रीद लो बस एक बढ़िया सी गाड़ी।
फिर गंदगी नहीं लिपटेगी मेरे अनाड़ी।

हमने कहा,
क्या कहने का कर रही हो प्रयास।
गाड़ी से प्रदूषण बढ़ेगा,
तो कैसे होगा सतत विकास।

पत्नी बोली,
साइकिल ख़रीदने को बोल रही हूँ।
भोले भंडारी।
पच्चीस साल से,
पत्नी हूँ तुम्हारी।

तुमसे ज़्यादा पर्यावरण की चिंता करती हूँ।
सूखा और गीला कचरा अलग पैक करती हूँ।
सारी दुनिया को सुधारने मत जाओ।
तुम अगर सिर्फ़ खुद सुधर जाओ।

पर्यावरण,
खुद ब खुद ठीक हो जाएगा।
सावन भी,
वही पुरानी मिट्टी की ख़ुशबू याद दिलाएगा।