जब बोलने का वक्त होता है, हम चूक जाते हैं / सहरा करीमी / सुभाष राय
मेरा नाम सहरा करीमी है और मैं एक फिल्म निर्देशक हूं। मैं टूटे दिल के साथ लिख रही हूँ और इस गहरी उम्मीद के साथ कि आप मेरी ख़ूबसूरत जनता को तालिबान से बचाने में शामिल होंगे। यह एक मानवीय संकट है, फिर भी दुनिया ख़ामोश है। हमें इस चुप्पी की आदत है, लेकिन हम जानते हैं कि यह उचित नहीं है। 20 साल में हमने जो हासिल किया है वह अब सब बर्बाद हो रहा है। कुछ हफ्तों में तालिबान ने कई स्कूलों को तबाह कर दिया है और 20 लाख लड़कियों को फिर से स्कूल से निकाल दिया है। मैं इस दुनिया को नहीं समझती। मैं इस चुप्पी को नहीं समझती। मैं खड़ी हो जाऊँगी और अपने देश के लिए लड़ूँगी लेकिन मैं यह का अकेले नहीं कर सकती।
जब उन्होंने
ऐलान किया कि लड़ाई ख़त्म हो गई है
लोग घबराकर हवाई अड्डों और पड़ोसी देशों
की सरहदों की ओर भागने लगे
वे समझ गए कि अब
युद्ध शुरू हो गया है ।
जब उन्होंने
यक़ीन दिलाने की कोशिश की कि
औरतों को काम पर जाने की आज़ादी होगी
बच्चियों को स्कूल जाने से नहीं रोका जाएगा
तब सबसे ज़्यादा डर लगा
औरतों को ।
सहरा करीमी
की आवाज दुनिया के कानों तक
पहुँचने के पहले ही वहाँ पहुँच चुके थे हत्यारे
सेना ने बिना लड़े हथियार डाल दिए
राष्ट्रपति जान बचाकर निकल भागे
जो नहीं भाग पाए, उन्होंने तलवारों
की मरज़ी के आगे सर झुका दिए
कोड़ों के सामने पीठें
बिछा दी ।
करीमी की आवाज़
में दर्द था, बिलकुल वैसा ही
जैसा उस कलाकार की आवाज़ में था
जिसकी गर्दन कुछ ही पलों पहले उतार ली गई
जैसा उस कवि के मुक्त गान में था
जिसे अभी-अभी फाँसी पर
लटका दिया गया ।
वे लड़ना चाहती थीं
अपने बीस सालों की ख़ातिर
उन्हें उम्मीद थी, लोग बर्बरों के विरुद्ध निकलेंगे
कट-कटकर जूझेंगे तलवारों से
वे हैरान हैं कि दुनिया इस तरह
ख़ामोश क्यों है ?
अक्सर जब बोलने
का व होता है, हम चूक जाते हैं
और जब भी ऐसा होता है, हम तालिबान को
न्योता दे रहे होते हैं ।
16 अगस्त 2021