उपेक्षिता अम्बा / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'
मुझे याद है उपेक्षिता
अम्बा वन में आयी थी
लोक तिरस्कृत होकर
दुख की बदली-सी छाया थी।
अश्रु स्नात ज्वाला-सी
ठहरी थी मेरी छाया में
धधक रहे थे अग्निपुन्ज
डस मूर्तिमान काया में।
कुछ कुछ राजधर्म पर
कुछ कुछ यौवन की धारा पर,
दुखित और क्रोधित थी
नारी निज मन की कारा पर।
वह असहाय निराक्षित
बाला भरी हुई पीड़ा से,
आँसू-आँसू हुई जिन्दगी
निज मन की क्रीड़ा से।
भीगी हुई आँसुओं से
देखी मैंने तरूणाई।
बाल सुलभ चंचलता पर
विधि को दया भी न आयी।
नव तारूण्य रूप् अल्हड़ से
कौन न ठग जाता है?
जिसे देख जड़ता में भी
चैतन्य उभर आता है।
क्रोधमग्न तरूणाई का
लालित्य यदपि द्विगुणित है,
किन्तु वेदनाओं से पूरित
यौवन जलज ज्वलित है।
प्रेमी, पिता और अपहर्ता
सबसे विमुख हुई है,
राम-रोम प्रतिशोध
अग्नि से पूरित प्रमुख हुई है।
हर युग में देखी उपेक्षिताएँ
मैनें अनन्त हैं,
किन्तु न अम्बा के
समान पायी दुर्भाग्यवन्त है।
डूबी हुई धार में दुख की
और क्रोध से जलती,
चलती रही पंथ पर
अम्बा गिरती और सम्हलती।
दृढ़ संकल्प शक्ति से पूरित
वह क्षत्रिय बाला थी,
साहस की प्रतिमूर्ति
धधकती ज्वाला छविशाला थी।
ऋषियों के आश्रम में रह
डपदेश सुने बहुतेरे,
किन्तू न पाये टूट
मनस की चिन्ताओं के घेरे।
पूज्य होत्रवाहन के
आश्रम परशुराम थे आये।
सुनकर करूण कथा
अम्बा की नयन नीर भर लाये।
जागी प्रेरणा उपेक्षिता
अम्बा को न्याय दिलाऊँ,
आज्ञा देकर देवव्रत को
पाणीग्रहण कराऊँ।
भीष्म पिताम्ह को बुलवाकर
स्नेह सहित समझाया,
’बाँह गहे की लाज ‘पुत्र!
रखना है तूम्हे बताया।
किन्तु भीष्म ने प्रण के
आगे गुरूं आज्ञा ठुकरायी,
धर्म युद्ध ठन गया
विवश थी मर्यादा घवरायी।
क्षणभर को अम्बा के
उर में आश थी अँखु आयी,
परशुराम की शक्ति
अपरिमित किन्तु न कुछ कर पायी।
विश्वजयी वह शक्ति
भाग्य के सम्मुख विवश हई थी,
मुरझा गयी आश की कलिका
फिर से विरश हुई थी।
अम्बा का दुर्भाग्य
देखकर मैं भी चकित हुआ था,
हित न हो सका रंच
हुआ तो केवल अहित हुआ था।
भाग्य कर्म दोनों नारी के
देखे बहुत निकट से,
देखे कभी फूल से बनते
कभी प्रखर कंटक से।
भाग्य अदृश्य अमोघ शक्ति है
निश्चित और अटल है,
जिसे विधाता भी यदि चाहे
सकता नहीं बदल है।
नहीं किसी के सुख-दुख में
यह हँसता या रोता है,
कहता है- ‘नर वही काटता
जो कुछ भी बोता है।’
होकर फलित भाग्य अम्बा
का देखो डोल रहा है।
यौवन के सुधाकलशा मे
छुख-विष घोल रहा है।
कहने को कुछ नहीं
मात्र सहने दहने को नारी,
विवश भावना की लहरों में
है बहने को नारी।
तिल-तिल जलती रही
जिन्दगी जीवन की आशा में
जाकर लौटी नहीं मधुरता
अन्तस की भाषा में।
बना साक्षी मैं भी
सहता-दहता रहा ही
सुख-दुख भरी कथा
जीवन की कहता रहा सदा ही।