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माधव! आकर करो प्रकाशित / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'

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वेणु बजैया रास रचैया
यमना तट आता था,
श्राग मधुर जीवन का
बाँसुरिया से नित गाता था।

सुनकर मधुरी तान
प्राण मेरे भी सुख पाते थे,
पीड़ाओं के लोक
न जाने कहाँ विसर जाते थे।

यमुना जी की लहर-लहर
महन का यश गाती है,
श्यामा और श्याम की
पावन यादे दुहराती हैं।

वेणु गीत सुनकर
तनम न धन भूल सभी जाती थी,
लोक लाज को छोड़
गोपियां सहज चली आती थीं।

यह निःस्वार्थ प्रेम पावन
दर्शन कर धन्य हुआ मैं,
बना साक्षी लीलाओं का
सहज अनन्य हुआ मैं।

गोचारण वंशीवादन
कुंदन क्रीडन मोहन का,
अब तक याद मुझे है
घटियाक्रम कालिया मर्दन का,

गोवर्धन पूजन, गिरिधारण
कोप इन्द्र का भारी
हँसते हुए कहा माधव ने
की ब्रज की रखवारी।

गोमाता, गोवर्धन, यमुना
वृन्दावन, वंशीवट,
धन्य हो गये सभी
कृष्ण से पाकर प्रेम सुधाघट।

वही प्रेम है अमर धरा पर
जो अखण्ड पावन है,
जहाँ न विषयों की क्रीड़ा है
जहाँ न मोह चुभन है।

जहाँ न ठौर विरह को कोई
जहाँ न दुख का घेरा,
भौतिक पीड़ाओं का
लगता जहाँ न कोई फेरा।

जहाँ मिलन ही चिरजीवी है
सदा एक रस अक्षय
यही प्रेम का दिव्य-दीप है
रहता जो ज्योतिर्मय।

यही प्रेम राधा, मीरा
करमैती ने पाया था,
किया लोकविष पान
और अमरत छलकाया था।

यही प्रेम हनुमान, भरत,
शबरी, निषाद ने पाया,
मन मन्दिर का सघन-अँधेरा
क्षण में दूर भगाया।

सेवक से हो गये सेब्य
यश चक्रवाल गाता है,
इनकी सुन्दर कथा
दुःख मेरा भी छट जाता है।

प्रभु चैतन्य, सूर, तुलसी,
कबिरा को कौन न जाने,
पलटू, नानक, नामदेव, दादू
की कथा बखानें।

पिया प्रेम का प्याला
जिसने उसने सब कुछ पाया,
उस की गुण गरिमा को
किसने नहीं लोक में गाया?

श्याम-श्याम-राधे-राधे
हर साँस जपा करती है,
और हृदय में परम प्रेम
की ज्योति जगा करती है।

परम प्रेम वह धन अमूल्य,
जो विरले ही पाते हैं,
पाते है वो सबकुछ खोकर
सब कुछ हो जाते है।

ऐसा प्रेमी जब मेरी
छाया में आ जाता है,
जगता तब आनन्द हृदय में
अमरत बरसाता है।

’प्रेम अनिर्वचनीय तत्व है’
यह सुनता आया हूँ,
किन्तु कृष्ण का प्रेम प्राप्त कर
सत्य समझ पाया हूँ।

वाणी रहित हृदय की भाषा,
निराकार अक्षर है,
प्रेम परम मधुराधिप पावन
दिव्य तत्व ईश्वर है।

त्रिगुणातीत, अलौकिक,
अनुपम रस की अमर कथा है,
जिससे बँधी समष्टि,
प्रेम वह अतुल अखण्ड तथा है,

किन्तु आज यह प्रेम
जन मनों से रिसता जाता है
और जिन्दगी का कद
दिन-दिन नही घिसता जाता है।

अपने अपने हुए सभी
अपना न रह गाया कोई,
देख-देख यह दशा
हृदय में पीड़ा जागी रोयी।

अरे प्रेम देवता!
क्यों नहीं धरती पर आते हो?
क्यों न राग जीवन का
फिर से मधुर सजा जाते हो?

बिना प्रेम के अन्धकूप-सा
जीवन भय उपजाता,
कौन चाहता क्या है किससे
कुछ भी समझ न आता।

जिसे देखिए वही
स्वार्थ की वीणा बजा रहा है,
घोर आत्म केन्द्र से
युग-जीवन बजबजा रहा है।

ममता दया और करूणा
शब्दों मे शेष बचे है
सहिष्णुता विनम्रता के
सूखे अवशेष बचे है।

हाय असंयम से पूरित
पशुता बढ़ती जाती है,
देख-देख यह दशा
मनुजता की फटती छाती है।

कब माधुर्य सुमन
उभरेंगे नव जीवन के पट पर?
गूँजेगी बाँसुरी
न जाने कब वंशीवट पर?

प्रेममूर्ति राधामाधव
कब आयेंगे पनघट पर?
कब होगा साकार प्रेम
फिर से यमुना के तट पर?

बाट जोहता हुआ
भानुजा की लहरें गिनता हूँ,
व्यथा सहेजे उर अन्तर मे
दृग मौक्तिक चुनता हूँ।

पिये प्रदूषण गरल
व्यथित है मेरी पाती-पाती
माधव! आकर करो
प्रकाशित जीवन की सँझवाती।