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तपस्या / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'

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बढ़ रहा ताप-सन्ताप है ग्रीष्म का
तप रहे जन, विजन, भू, गगन आग-से।
चाहती छाँह भी छाँह शीतल मिले
छाँह के भी गये फूट हैं भाग-से।

है ठहर-सी गयी प्यास बुझाती नहीं
हो रहे प्राण-मन हैं विकल राग-से।
तप रहे गीष्म अम्बा समान्तर प्रखर
होड़ के भाव मानों गये जाग-से।

सान्ध्य बेला सहज शान्ति संचारिणी
हारिण दैन्य दुख श्रान्ति की क्षारिणी।
स्वर मुखर भव्य नीराजनों के हुए
वेद मन्त्रध्वनी सर्व सुख कारिणी।

जा रहे नीड़ की ओर द्विज दल विपुल
भावनाएँ मृदुल्लास की धारिणी।
श्रान्त दिनमणि प्रतीची प्रिया ये मिले
है मिलन की घड़ी पूज्य अधिकारिणी।

कर्म का ढल रहा है दिवाकर सतत
छविछटा पर घटा श्रान्ति छायी हुई।
र्इ्रगुरी-ईगुरी है प्रतीची दिशा
सौम्य सुकुमारिका कान्ति छायी हुई।

है धरा पर जगी सान्ध्य बेला मधुर
व्योम से भूमि तक शान्ति छायी हुई।
किन्तु अम्बा मनस में घिरी चिन्तना
शोध-प्रतिशोध की क्रान्ति छायी हुई।

रूप की राशि है उग्र तेजस्विता
प्राण में अग्नि के सिन्धु की गर्जना।
वर्जना कर रही शान्त सन्ध्या मगर
हो रही भीष्म संहार की सर्जना।

हाय! जिसने किया भग्न जीवन मधुर
स्वप्न सोनल सभी सह गये वर्जना।
क्रूर निर्मल कुटिल घोर संतप्त हो
अश्रु मेरे कभी हो सके बन्दना।

जीवनोद्यन में भीष्म झंझा बने
नष्ट सब कर दिये कामना के कुसुम,
घोर अभिशप्त जीवन हुआ फूल-सा
कंटकित कर गये हाय! हर पंथ तुम।

उर-गगन में घिरी क्रोध की बदलियाँ
प्रेम के घन सघन हो गये आज गुम।
है धधकती हुई एक ज्वाला बची
आमरण जो बुझा भी सकोगे न तुम।

कर उपेक्षा न यो प्राण पण पर न धर
दम्भ पाखण्ड की होलिका को जला।
क्यों बुझाता हृदय की मधुर ज्योति को
घोर तम में न तनम न मनोहर गला।

है तिरस्कार में भी समाधान क्या,
जो समाधान था वह दिया क्या भला।
बैठने चैन से मैं न दूँगी तुम्हें
साँस प्रतिसाँस से उठ रहा जलजला।

सींच जो वंशवट खूब उन्नत किया
नष्ट होता उसे रात-दिन देखिए।
अश्रु भी साथ देंगे नहीं उम्रभर
जिन्दगी दुर्दिनों से भरी खींचिए।

चैन तिलभर नहीं पा सकोगे कभी
न्याय अन्याय पर मौन दृग मीचिए।
से सकोगे नहीं, खा सकोगे नहीं
रह सकोगे नहीं शान्ति से सोचिए।

कोस अम्बा रही भीष्म अन्याय को
दग्ध मानस लिये जा रही पंथ पर।
तीर्थ से तीर्थ चलती रही ढूँढ़ती
भीष्म के नाश का मन्त्र इच्छित प्रखर।

चित्त की वृत्तियों को समेटे हुए
चीर प्रण का लपेटे हुए अंग पर।
एक ही कामना एक ही भावना
एक ही लक्ष्य है भीष्म विध्वंस कर।

कोमला भावनाएँ जगी थीं कभी
सूखकर हो गयीे पीर शमशीर-सी
चम्बलों-सी हुई घोर बीहड़ अतुल
जो सजी थी कभी भव्य कशमीर-सी।

प्रेम की रश्मियाँ शूलियों पर चढ़ीं
चन्द्रिका जल गयी प्राण में क्षीर-सी।
देखती रह गयी मैं अभागिन बनी
लुट गयी धर्म की हाय! जागीर-सी।

तीर्थ पर तीर्थ करती निरन्तर रही
माँगती ध्वंश हो मानवी दंश का।
धर्म से हीन मनुजत्व है हो रहा
दुःख वर्धन हुआ न्याय के हंस का।

अश्रुभर रो रही है धरा देव! फिर
बढ़ रहा वंश है क्रूरता कंस का।
पाप संताप सहती जहाँ नारियाँ
नाश हो उस अर्धमाचरी वंश का।

तप रही क्षण प्रतिक्षण सतत गतिमती
तप्त अम्बा विकट काल विकराल में।
तप रहे प्राण मन तप रहा पूर्ण तन
तप रहा प्रण प्रबल एक हर हाल में।

साधना शक्ति की घोर आराधना
शत्रु के नाश की चिन्तना भाल में।
" नष्ट जीवन किया भीष्म! तुमने तुम्हें
भेज दूँगी बली काल के गाल में। "

प्राणपण से जुटी र्शिक्त केन्द्रित किये
पर अभी कर सकी शक्ति धारण नहीं।
चित्त प्रतिशोध की अग्नि में जल रहा
कर सका रंच भी शान्ति धारण नहीं।

वेदनाएँ प्रगति नित्य करती रही
हो सका था कहीं भी निवारण नहीं।
मिल सका था न सन्तोष तृण भी कहीं
मिल सका था कहीं मन्त्र मारण नहीं।

पंथ पर भीष्म की माँ मिली जाह्नवी
पूछने थी कुशल क्षेम मंगल लगी।
" जन्म से मैं तुम्हें जानती हूँ सुते!
तू सदा शान्ति की मूर्ति प्रतिपल लगी।

देवि! तुम हो सुता श्रेष्ठ काशीश की
स्नेह सद्भाविनी छवि दिगंचल लगी।
किन्तु क्यों है दृगों की अरूणिमा प्रखर
क्रोध अभिसिंचिता-सी अचंचल लगी।

उत्सवों पर तुम्हें पूजनोत्सुक सदा
दर्शनोत्सुक सदा देखती मैं रही।
किन्तु कुछ वर्ष से हो न दर्शन सके
ब्षाह शायद हुआ मानती मैं रही।

तीरथों में भटकते हुए देखकर
घोर आश्चर्य को पालती मैं रही।
ब्याह तेरा हुआ मैं न पूजी गयी
हो अभी और क्या सोचती मैं रही।

अंग उद्दीप्त नव किन्तु नीरस सकल
भूषणों से रहित छवि अचंचल बनी।
क्यों न जाने प्रभाती-प्रभाती नहीं
शान्त संध्या सदृश पश्चिमांचल बनी।

दिव्य काशी धराधाम का धाम है
कीर्ति कुल की सदा से समुज्जवल बनी।
लग रही हो अभी देवि! सुकुमारिका
क्यों प्रभा छवि सभा दीन निर्बल बनी? "

बाण से शब्द उर में प्रविशते रहे
घात पर घात सहती रही निर्बला।
कुछ नहीं कह सकी मान सम्मान बस
मौनव्रत-सा लिये ज्यों सहज चंचला।

उत्तरित हो न पाये कई प्रश्न पर
जाह्नवी को मिला एक उत्तर खला।
" देवि गंगे! यही एक उद्देश्य है

भीष्म के नाश की आस हो सत्फला।
देवि गंगे! जरा धैर्य धारण करो
आपके पुत्र का धर्म दर्शन कहूँ।

नीति में, न्याय में लोक विख्यात है
ज्ञान विज्ञान का मान-वर्धन कहूँ।
वीर योद्धा परम शस्त्र चालक अतुल

भक्ति सम्पन्न मन को महामन कहूँ।
कर न पाया वरण कर हमारा हरण
किस तरह आचरण हाय! पावन कहूँ। "

" देवि अम्बे! सुने सत्य मैं कह रही
तुम कभी भीष्म को मार सकती नहीं।
शक्ति है भीष्म की सिद्ध अपराजिता
कोमला कर उसे पार सकती नहीं।

व्यर्थ की कर प्रतिज्ञा विसर्जित अरे!
क्या दयाधर्म को धार सकती नहीं।
शेष जीवन करो ईश्वरार्पण सहज
प्रभु चरण में हृदय वार सकती नहीं? "

" दग्ध मेरा हृदय शान्ति की साधना
कर न सकता कभी सत्य मैं कह रही।
दग्ध की पीर है दग्ध ही जानता
बह्नि की धार कैसे कहाँ बह रही।

दग्ध अन्तस न तेरा कभी है हुआ
इसलिए शान्ति उपदेश है कह रही।
शक्ति साधन विपन्ना विवश मौन हो
आज तक अग्नि के बाण मैं सह रही।

" देवि! यह तो नहीं है कथन आपका
पुत्र का मोह यह पुत्र का पक्ष है,
पुत्र अपराध करता रहा आज तक
विश्व जिसको चुका देख प्रत्यक्ष है।

दक्ष हैं आप भी धर्म उपदेश में
आपका पुत्र भी पूर्णतः दक्ष है
मोह दुर्बल बनाता सदा न्याय को
घोर अपराध के जोकि समकक्ष है।

बह रही हो बहो सृष्टि सेवार्थ तुम
लोक मंगल करो लोक आलोक बन,
ज्यों न ठहराव जीवन तुम्हारा चहे
चाहता त्योंहि ठहराव मेरा न मन।

देवि गंगे! यही लक्ष्य है एक बस
भीष्म के नाश का पुष्ट साधन सर्जन,
योग, वैराग्य, पूजन, भजन है यही
है अखण्डित यही एक चिन्तन-मनन।

लील ले सिन्धु क्षिति सृष्टि का हो क्षरण
अग्नि शीतल बने, नीर पाहन बने।
पंथ से मैं न तिलभर टलूँगी कभी
भानु ठहरे भले काल का संचरण।

लक्ष्य की प्राप्ति होती न जब तक मुझे
ग्तिमती मैं रहूँगी सतत आमरण।
देवि! विश्वस्त हूँ एक दिन लक्ष्य को
प्राप्त कर शान्ति का मैं करूँगी वरण। "

" देख अम्बे! न हठवादिता है उचित
घोर हठ शान्ति का नाश करती सदा,
क्यों न जड़ता जड़ी दूर उर की करो
चित्त की काँकरी दुःख भरती सदा,

मानसिक कर्म जब हीन होते सघन
द्वेष की भावना कान्ति हरती सदा,
क्रोध मन को मरूस्थल बना डालता
रेत उड़ दृष्टि को है अखरती सदा।

मैं तुम्हें हूँ बनाती नदी गतिमती
अर्धतन से नदी बन बहो भूमि पर,
धार में वक्रता, कर्म में वक्रता
नाम तव 'वक्र-सरिता' रहेगा मुखर,

मात्र बरसात में पूर्णता प्राप्त कर
लोक में आपका आप होगा प्रखर,
शेष जीवन सदा रेत के खेत-सा
मौन निष्फल निरन्तर रहेगा सखर।

व्यर्थ ठहराव है, है निठुर जिन्दगी
मिल सकी कब किसी को यहाँ पर शरण
है शरण चिर जहाँ शान्ति अक्षय भरी
प्राप्त करना उसे तोड़ सब आवरण।

कन्त का अंक ही मिल गया हो जिसे
फिर उसे छू न सकता जनम या मरण। "
शब्द नीरव हुए जाह्नवी के सहज
किन्तु गति में न यति आ सकी एक क्षण।

कर लहर के उठाती हुई जाह्नवी
पंथ अपना मनोहर बनाती चली,
मुस्कुराती चली कुछ लजाती चली
लोक मंगल सुधाघट लुटाती चली,

अंक प्रिय का मिलेगा सनातन मधुर
भावना-दीप उर में जलाती चली
कामना के मधुर गीत गाती चली
शान्ति के स्वप्न पावन सजाती चली।

स्वप्न तो स्वप्न है-स्वप्न की बात क्या
पूर्ण होते न हर बार देखे गये,
सोचती रह गयी मौन अम्बा खड़ी
पर न मन प्राण से सार देखे गये,

बन गयी वह 'नदी-वक्र' ग्राहों भरी
हैं जहाँ रेत के भार देखे गये,
लोक मंगल अमंगल बना है जहाँ
क्रान्ति के तीव मझधार देखे गये।

अर्धतन से बनी वत्सकुल की सुता
किन्तु प्रतिशोध की ज्योति जलती रही,
भावना भीष्म के पूर्ण संहार की
प्राण में नित्य पलती सम्हलती रही,

कर उठी घोर तप भीष्म के नाश हित
क्रोध संतप्त-सी वह उबलती रही,
नष्ट जीवन कठिन, नित्य करती रही
कंटकित पंथ पर हाय! चलती रही

सिद्ध-आसन लगा भानुजा के निकट
ध्यान प्रलयेश का कर उठी थी सघन
भेद सप्तावरण जा सहस्रार पर
व्योम निस्सीम का दर्श अपलक नयन,

तप रही कोमलांगी परम तप्त-सी
तप रहें स्वप्न हैं तप रहें प्राण-मन,
देखकर तप कठिन देव समुदाय सब
हो उठा था प्रकम्पित सहज भीत मन।

शम्भु हर्षित हुए देख तप देवि का
चल पड़े छोड़ कैलाश पावन शिखर,
ध्यानमग्ना जहाँ शान्त अम्बा सहज
शम्भु आये उसी भानुजा तीर पर,

कह उठे " माँगिए देवि! वर माँगिए
मैं प्रफुल्लित हुआ देखकर तप प्रखर,
कामना जो रही है घनीभूत हो
कह, सभी पूर्ण होगी न संकोच कर। "

शम्भु पद पंकजों में निवेदित नमन
कर उठी प्रार्थना देख संकट शमन,
निज व्यथा की कथा सब कही देव से
नाथ! वरदान दो हो सके शान्त मन,

कर सकूँ शीघ्र ही अन्त मैं भीष्म का
घिर सकें शान्ति के प्राण में घन सघन,
नाथ! जय हो तुम्हारी हमारी विजय
जग उठी प्राण में एक आशा किरन। "

दे रहा हूँ तुम्हें देवि! वरदान मैं
जन्म लोगी द्रुपद की सुता दिव्य बन,
किन्तु कुछ काल के बाद पुंषत्व पा
युद्ध में भीष्म का कर सकोगी दमन।

अग्नि को तन समर्पित करो शीघ्र ही
तीसरा जन्म पाओ प्रखर शक्ति बन। "
साध पूरी हुई तप विसर्जित हुआ
हर्ष गद्गद हृदय प्रेम विह्वल नयन।

" भीष्म! तुमने मुझे दी चिता व्यंग्य की
हाय कुछ भी न सोचा बिचारा कभी।
प्रज्वलित अग्नि मुझमें वही आज तक
कर न पलभर सकी मैं किनारा कभी।

मैं जली, तुम जले औार जलते रहो
पा सके तुम, न मैं शान्ति धारा कभी।
काल से हैं सभी हारते एक दिन
पर किसी से नहीं काल हारा कभी।

वेदना की घटाएँ घिरी ही रहीं
ज्योति मुस्कान की पा सकी मैं नहीं,
नीर-निर्झर बने दृग सलोने युगल
पीर नर्तित रही गा सकी मैं नहीं,

भाग्य ने खेल खेला सदा है यहाँ
पर उसे रंच भी भा सकी मैं नहीं,
शूल पर शूल नित मारता ही रहा
मृत्यु के द्वार पर जा सकी मैं नहीं। "

कर चिता शीघ्र तैयार अम्बा हुई
दग्ध जीवन, दिया अग्नि में दग्धकर,
रह गये स्तब्ध नभ भूमि तप त्याग से
भानुजा डर गयी डर गयी हर लहर,

धूम्र के घन सघन हैं तटों पर घिरे
हैं घिरे भाव प्रतिशोध के या प्रखर,
' भीष्म! रहना सजग आ रही शीघ्र मैं
अन्त करने तुम्हारा लिये शस्त्र कर। "

रण किये मैंने बहुत हैं सहे वार अनन्त,
खड्ग बाण प्रचण्ड रंजित रक्त जीवन अन्त,
पर न वह पीड़ा हुई जो आज तक है मौन
हार अपनों से गया मैं, सुने आखिर कौन?

जन्म लेते ही गये उड़ शान्ति सुख के हंस,
ओह! फिर-फिर दंश का क्यों बढ़ रहा है वंश?
दग्ध कर निज देह अम्बा हुई शून्य समान
शून्य में भी धधकते प्रतिशोध में हैं प्राण।