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हे गंगे / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'

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हे गंगे! तू दयाकरा है,
गुणागरा है शुभाकरा,
दिवाकर है प्रभाकर है,
सुधाकरा है मनोकरा।

निर्झरिणी करुणा की पावन
ममता की चन्द्रिका धवल।
स्नेहामृत की श्रुभधार
शुचिता की सुन्दर मूर्त्ति सरल।

हे गंगे! इस धराधाम पर
तुझसे बढ़कर कौन यहाँ?
आखिर किसकी महिमा गायें
आखिर जाये और कहाँ?

हे गंगे! तूने सदैव से
सृष्टि चक्र का संचालन-
अविकल रखा धरातल पर है-
प्रखर कण्टकों में भी चल।

हे गंगे! तब तुम्हीं
संगठन की दुर्गा बन आती हो,
दुर्गुण का कर अन्त
धरा पर सद्गुण ध्वज फहराती हो;

बढ़ती है जब घोर असुरता
जगती होती सकल विकल,
हे गंगे! मानव क्या सुर भी
पाते तब तुझसे सम्बल।

शिव की जटा-अटा पर शोभित
मैया तेेेरा है आसन
तेरी महिमा का मनुष्य
कर सका भला कब है वर्णन।

अविनाशी घट-घट वासी
कैलाशी शिव की परम प्रिया
बनकर तुमने धराधाम पर
ज्ञान सुधाघट लुटा दिया।

माता! तुमने लोक और
परलोक सँवारे हैं नर के,
काशी को कलि कल्मष
हरणी बना दिया है तप करके;

किन्तु कृतघ्न मनुष्य
रंच उपकार नहीं कर पाया है,
सुख के मोती छीन
दुःख दूषण दरिद्र भर पाया है।

कभी सुधावट पिया
कभी हँस-हँसकर गरल पिया तुमने,
घोर विसंगतियों में भी
जीवन जीवान्त जिया तुमने।

सकल सुर-असुर तेरी
अमरत धारा का करते वन्दन,
तेरी तट-रज बनी हुई है
धरती से नभ तक चन्दन।

हे गंगे! तुम धैर्य धरा का
वारिधि का गाम्भीर्य अतुल,
तुम्हीं धराधर की दृढ़ता हो
जीवन का कलगान मृदुल।

हे गंगे! तुमने असंख्य
संकट पर संकट झेले हैं।
तेरे अंचल में लगते
सुख-दुख दोनों के मेले हैं।

वीर प्रसविनी महीयसी है
शस्यश्यामला वसुन्धरा,
तेरी दया दृष्टि से जिसका
कण-कण रहता हरा-भरा।

जब वासना-व्याधियाँ
मानव मन को कस लेतीं कसकर,
मर्यादाएँ खण्डित होतीं
होता है अनर्थ भू पर।

तृष्णाएँ जब विमल बुद्धि
पावन विवक को खा जातीं,
लता-अनिति अपरिमित
सीमाओं तक जब है लहराती।

घोर स्वार्थ की धाराओं में
ममता झुलस विवश होती,
नीरव करुणा भी विगलित हो
बिखराती दृग के मोती।

तब माँ! तेरी लहर-लहर
करती है शक्ति समाराधन।
जीवन को अभिनव गति देती
करती कण-कण परिर्माजन।

गंगे! तेरी दृष्टि सृष्टि में
मधुर रागिनी है भारती।
दुख-दर्दो के जंगल में
सुख हास-रास-सर्जन करती।

होता है सम्मान प्रकृति का
वहाँ देव विचरण करते,
सहज सत्त्वगुण हो सदेह
मानवता का रक्षण करते।

तेरा जीवन पूर्ण यज्ञ है
जग-जीवन का हितकारी,
जीवन-जीवन का जीवन है
पावन है मंगलकारी

कभी चराचर उऋण न
हो पायेगा तुमसे हे माता!
भाग्य विधाता निखिल भुवन की
त्रिपथगामिनी वरदाता!
,
प्रचुर मान-सम्मान जहाँ
पाती न कभी हैं धाराएँ।
उसी देश में व्योम कुसुम हैं
प्रगतिधर्मिणी प्रतिभाएँ;

और जहाँ श्रद्धा से होता
नदियों का है अभिनन्दन
वहाँ प्रगति की मधुर कोकिला
करती है हर पल कूजन,

वहाँ भक्ति, अध्यात्म, ज्ञान,
हर क्षण मुस्काया करते हैं,
जन-मन में श्री राधामाधव
रास रचाया करते हैं।

मनुज अगर ला सके मनुजता को
फिर से इस धरती पर,
तो गंगा की धार कर सके
अखिल लोक का हित सत्वर।

मनुज! अगर तू गंगा का
सम्मान नहीं कर पायेगा,
तो जीवन में शान्ति-प्रगति के
रत्न नहीं ं तू पायेगा।

अश्रुधार-सा सरिता-जीवन
प्रवहमान अविरल रहता,
सत्यं शिवं सुन्दरम् का
सन्देश निरन्तर है कहता।

बना रहा अभिशाप
मनुज निज मंगलमय वरदानों को,
प्रगति पंथ को करता धूमिल
संयम के सोपानों को।

तपस्थली काशी की पावन
ज्ञान-गंग से अभिसिंचित
हर-हर महादेव से रहती
जो हर क्षण है अनुगुंजित।

जीवन का पथ परम वक्र है
यही सदा कहती रहती,
काशी में चन्द्रमा द्वितीया
के समान गंगा बहती।

जहंॉ विषय के भोग सकल
शिव स्वयं ग्रहण कर लेते हैं,
उर अन्तर से अमा मिटाकर
नव प्रकाश भर देते हैं।

काशी के पवित्र गुरुकुल हैं
जीवन में गुरुता भरते।
वेद-पुराण उपनिषद्
दर्शन मुखरित जहॉ रहा करते।

रुद्र महायज्ञों से उठते
अगरुधूम के घन मण्डल,
पर्यावरण विशुद्ध बनाते,
करते हैं जीवन उज्ज्वल।

यज्ञ एक विज्ञानपूर्ण
आधार मनुजता का शोभन,
परहित के सब कार्य यज्ञ हैं
नहीं होम तक परिसीमन।

दृग विहीन के दृग
लगड़े की वैशाखी बनकर देखें,
भूखे को भोजन
प्यासे को थोड़़ाजल देकर देखें।

विधवाओं के लाज वसन
अक्षर बन सकें निरक्षर के,
गूूॅंगे को स्वर, बहरे के संकेत
बन सकें पलभर के।

वस्त्रहीन के वस्त्र
रोगियों की औषध यदि बन जायें,
परहित पूर्ण यज्ञ जीवन का
इसको यदि हम कर पायें।

तो आदर्श मनुजता के
बनकर अनन्य बन जायेंगे,
ईश्वर के सच्चे आराधक
धरती पर कहलायेंगे।

सबमें अविनाशी समान है
सबमें वही समाया है,
परसेवा से ही होता वह
ईश प्रसन्न सवाया है।

कर्मकाण्ड तो सामाजिक
संचालन के संसाधन हैं
ठीक-ठीक वह नहीं
मुझे लगते ईश्वर आराधन हैं।

सत्य सनातन निर्विकार है
और सहज है सुन्दर हैं,
ईश्वर है शिवत्व का संचय
कण-कण में उसका घर है।

जाति-पाति कल्पित धर्मों की
सीमा में कब तक है रहता,
ईश्वर में समान सबके प्रति
दिव्य प्रेम-निर्झर बहता।

धरती या आकाश दृष्टि में
डसकी भेद न पाते हैं।
प्ण्डित मूर्ख सभी से वे ही
वांछित नृत्य कराते हैं।

वही अजन्मा शिव स्वरुप
भू लोक उद्धारक है,
अंगराग जिसका विभूति है
डमरु ज्ञान प्रसारक है।

काशी के घाटों पर पावन
ज्ञान-दान चलते रहते
ज्ञान दान दोनों उत्तम
मनुजत्व सहज सर्जित करते।

यहॉ मनुजता सतत
समुन्नति पाकर हे शिवमय होती
यहॉ जिन्दगी को मिलते हैं
शान्ति और सुख के मोती।

ध्यान निरन्तर उर अन्तर में
भरता है शिवत्व अनुपम।
उन्नत होता आत्म तत्व है
मिट जाता है अन्तर-तम ं

प्रथम सृष्टि में परब्रह्य ने
सृजित किया शिवलोक अमर
नाम बाद में पड़ा उसी का
काशी इस वसुधातल पर।

मनु के वंशज काशदेव ने
मुक्त क्षेत्र विस्तार किया,
काशी बसा नाम पर अपने
जगती का उद्धार किया।

वरुणा और असी नदियांे
के मध्य बसा यह धर्मनगर,
'वाराणसी' इसी से इसका
नाम पड़ा है वसुधा पर।

यहाँँ भारशिव राजाओं ने
अश्वमेध दश बार किये,
रहे वीरता कीर्ति कौमुदी
का अनन्त विस्तार किये।

काशी के सुरम्य पथ विस्तृत
धर्म-भुजाओं से शोभन
सजे हुए आश्रम, मन्दिर गृह
जहाँ सँवरता नर जीवन।

सात्विक वातावरण रम्य
तुलसी चौरौं पर दीपार्चन
यत्र-तत्र-सर्वत्र दिव्य सद्गन्ध
प्रसरती क्षण प्रतिक्षण।

कण-कण सत्वगुणी धारा से
स्नात प्रात-सा है उज्ज्वल।
निर्भय रहते जहाँ सभी
सबका सबके प्रति मन निर्मल।

विश्वनाथ का नित्य प्रात ही
दिवानाथ वन्दन करते।
सोनल-सोनल किरणों से
काशी का अभिनन्दन करते।

शंख और वेदध्वनियों से
मुखरित होता नीराजन,
जयकारों से जहाँ निरन्तर
गंुजित रहता धरा गगन।

काशी प्राची है मनोज्ञ
सद्ज्ञान रश्मियों का निर्झर,
जहाँ धर्म की स्वर्ण राशि
नित कुन्दन होती है तपकर।

सत्य न्याय सद्ज्ञान
प्रेम का काशी है आदर्श परम,
जहाँ सभी पद मर्यादा
अनुशासन में रहते उत्तम।

काशी है वह धाम जहाँ
अभिराम नाम की माया है,
शिव विराट की महामहिम
यह मोक्षदायिनी छाया है।

काशी है वह मुक्त क्षेत्र
जो कभी न बँधता बन्धन में,
काशी है वह रत्न
जिसे पाकर न लौटता नर तन में।

काशी है वह ज्योति
लोक आलोकित जो कण-कण करती।
काशी है वह प्रभा
चेतना जो अनन्त मन में भरती।

काशी है वह रूप
ध्यान जिसका सुर नर मुनि सब करते,
काशी है वह नाम
जिसे जपकर सब भब वारिधि तरते।

काशी है वह कल्पवृक्ष
जो इच्छित फल देने वाला,
काशी है वह इन्द्रधनुष
जो सबका मन हरने वाला।

काशी है वह अद्रि
जहाँ से झरते भक्ति प्रताप धवल,
काशी है वह धाम
जहाँ पर प्रेम-दीप जलते अविरल।

काशी है वह धरा
जहाँ मानवता की फसलें उगतीं,
काशी है वह दीप
सभयता ज्योति जहाँ उन्नत जगती।

काशी है वह बाग
जहाँ संस्कृति की कलिकाएँ खिलतीं,
काशी है वह तीर्थ
जहाँ धर्मों की धाराएँ मिलतीं।

काशी है वह धरा जहाँ
वैराग्य, त्याग उन्नत होते
काशी है वह तपोभूमि
जिसमें दुर्भाव द्वेष रोते।

काशी है वह मही,
जहाँ आसक्ति अरु मज्जन करती,
काशी है वह तपस्थली
शिव छवि को नित नूतन करती।

काशी है वह ऋतुराज
धर्म का उपवन श्रृंगारित करता।
कनक लताओं के अधरों पर
मधुर भक्ति अंकित करता।

अक्षर जीवन धार लिख रही
जीवन का अक्षर-अक्षर,
सुरापगा की लहर-लहर पर
शिव पुराण के श्लोक अमर।

धर्म-धरा काशी ने देखे हैं
विशाल यज्ञायोजन,
जिनका पुण्य प्रताप व्याप्त है
सुर नर मुनि के अन्तर्मन;

किन्तु साथ ही कर्मकाण्ड
पाखण्ड जन्म देता आया
पुण्य धार के साथ
पाप का निर्झर भी लहराया।

रुढ़ हो गयीं परम्पराएँ
जो न रही अब प्रासंगिक,
जिनके कारण प्रगति पंथ की
छवि न रह गयी नैसर्गिक।

संस्कारों के साथ पनपते
रहे विकारों के दल-दल
खिलते रहे कमल भी
लेकिन सहते रहे पंक के छल।

सत्य धर्म का पथ एकाकी,
सम्भ्व कभी नहीं रहता,
साथ-साथ उसके अधर्म का
दाहक ज्वार चला करता;

किन्तु धर्म के सम्बल शिव हैं
सहिष्णुता के सागर हैं
तम संहारक लोक प्रकाशक
शंकर दिव्य दिवाकर हैं।

आर्य-अनार्य सभी ने अपने
ध्वज काशी पर फहरायें,
सबने पाया यहाँ समादर
सबने ज्ञान रत्न पाये।

डूब समन्वय की धारा में
निकल नहींे कोई पाया
भाव-कुभाव, अनख-आलस
जैसे भी जो काशी आया।

तलवारों से भी समर्थ
लेखनी यहाँ की रही सदा,
दोनों के इतिहास अमर हैं
गंगा कहती यही सदा।

काशी में शिव कृपा प्राप्त
'शव' शिव समान हो जाता है।
इसीलिए मांगलिक भाव से
विधिवत पूजा जाता है।

शव का दर्शन होते ही जन
'हर-हर-महादेव' कहते,
शव को शिव-सा मान
हृदय से वन्दन अभिनन्दन करते।

मंगलमय है मरण यहाँ पर
जीवन सफल यहाँ पर है।
दोनों में शिवत्व का दर्शन
पावन परम सुधाधर है।


मणिकर्णिका मोक्ष का अनुपम
केन्द्र धरित्री का पावन,
जो सद्गति, सायुज्य शम्भू का
देता जन-जन को क्षण-क्षण।

द्वादश आदित्यों से भूषित
अमर तेज धारी काशी,
पृथ्वी पर देदीप्यमान
शिव शंकर की प्यारी काशी।

जिन्हें देख असुरों के दल भी
रहते सदा अमंगल हैं।
छप्पन रुपों में गणेश
कर रहें सर्वविधि मंगल हैं।

परम ज्ञान की धारा लेकर
वेदव्यास यहाँ आये,
पाकर शिव की कृपा
चतुर्वेदों का प्रणयन कर पायें।

अष्टादश पुराण सर्जित कर
लिखी भागवत कथा मधुर,
दिव्य शान्ति से पूर्ण हो उठा
था पावन ऋषि का उर-पुर।

सबकी ज्ञान पिपासा
पावन करती रही शान्त काशी,
सब पर करती कृपा एक-सी
शिव की जटा-जूट वासी।

काशिराज के पावन कुल में
धन्वन्तरि ने जन्म लिया,
रोग-दोष हरने को जग के
आयुर्वेद महान दिया।

सर्वसुलभ है जहाँ मोक्ष,
निश्चिन्त सकल नर-नारी हैं।
सन्त, भक्त, संन्यासी, पण्डित
सब समान अधिकारी हैं।

सप्त मोक्षदात्री पुरियों में
पूज्य वरेण्य सदा काशी,
ज्ञान दायिनी पापनाशिनी
निखिल भुवन की सुखराशी।

शिव स्वरुपिणी काशी पावन
निर्विकार अविनाशी है,
त्रिगुणात्मिका प्रकृति है
उज्जवल पराशक्ति अद्यनाशी है।

जब काशी का धवल-धाम-
अभिराम दृष्टि में आता है।
अम्ब भारती का कमलानन
ज्योतिर्मय हो जाता है।