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समास / शिरीष कुमार मौर्य

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कोहरे से ढँका बहुत गाढ़ा-सा
शिशिर है इस बार
और भीतर की आग के सँभाल में
मेरे हाथ

अब जलने लगे हैं
एक लहर मेरे दिल को कँपाती गुज़रती है
आप उसमें शीत जोड़ कर एक समास बना सकते हैं
यह जानते हुए भी

कि समकालीन समाज समासों से नहीं चलता
मैं ख़ुद एक नहीं

कई-कई समास रचता हूँ अपनी भाषा में
शीत के साथ युद्ध एक समास था अब नहीं है
सुरक्षित और निरापद है दुनिया
उपसर्गों और प्रत्ययों से काम चल जाता है
हम आजीवन कलप सकते हैं

मनुष्यता के लिए
मैं फ़िलहाल
अपने ही एक शिशिर में फँसा हूँ
जो लहर मेरे दिल को कँपाती है उसी के सहारे
अपने भीतर की आग में

लपट उठाने की कोशिश करता हुआ
मैं एक दिन
अपने ग्रीष्म में चला जाऊँगा
वसंत मध्य में रहेगा

मेरी रागमाला का प्रमुख राग
वह कभी रहा ही नहीं
मध्य में अचानक उसका खिल उठना
मेरी नहीं
उसकी नियति है