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ओ मेरी सुआ / शिरीष कुमार मौर्य

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शिशिर आए तो
चोट-चपेट में टूटी
दर्द के मलबे में दबी
अपनी अस्थियों को समेटूँ
और धूप में तपाऊँ

कोई पूछे
तो बताऊँ हड़िके तता रहा हूँ यार घाम में
ऐेसा ही हो शिशिर का विस्तार

जीवन के
बचे-खुचे वर्षों तक
हो
पर ज़्यादा कुहरा न हो
अस्थियों को धूप का ताप मिले

दिल को
आस बँधे चैत की
ग्रीष्म का
आकाश मिले खुला

इच्छाओं को वन-सुग्गों-सी
सामूहिक उड़ान मिले
गा पाऊँ

रितुरैण अपने किसी दर्द का
छटपटाता रहे जीवन सदा
इन्हीं विलक्षण लक्षणाओं से बिंधा
ओ मेरी सुआ