चालीस साल बाद / मनोज शर्मा
सोचता हूँ
गर चिड़ियाँ उड़तीं घूमतीं, दूर सुदूर
और कभी जो पलटतीं
अपने पुराने शहर
उम्र ढलने के बाद
तो क्या करतीं
जो दूर रहे जड़ों से
लौटते हैं जब
माटी की उसी गंध के पास
क्या ममत्व से
बाहें फैलाए मिलती है उर्वरता
देह जो ख़र्च होती जाती है
छूट जाते हैं जो चटखारे
और शामिल हो लेते हैं नए स्वाद
उनमें बचा रहता है कितना
भाईचारा पुराना
चालीस साल
जैसे चालीस सांसें हों
जैसे हों चालीस लहरें
जैसे चालीस अवतार
जैसे चालीसा हो, चालीस का
जीवन उतरता है, तो उतरता ही जाता है
जैसे कमीज़ फटी फटी
जैसे उम्मीद कटी छंटी
जैसे जिज्ञासा बची खुची
वही हैं हवाएँ
लौट लौट आता है जीवन
वही तो है आकाश
झड़ झड़ झड़ते सालों के बावजूद
हम जो तात्कालिक हैं
अस्थिर, अक्षम्य
अपने ही वजूद के सामने
हम जो पंगु हुए पड़े हैं
दरअसल समय के बनाए बिजूके हैं
इक कोने से दूजे तक
निरंतर है नदी की जलधारा
करती कराती साक्षात्कार, निरंतर
क्या वैसे ही घुमड़ते होंगे बादल
वैसी ही नशे-सी चढ़ती होगी रात
चालीस साल बाद
वही होगी हेक की गूँज
कहाँ ही बदले होंगे
स्वीकार अस्वीकार
वहीं खड़ी मिलेंगी जफ्फियाँ
अभी कल ही तो निकले थे
गलबहियों से
कैलेंडरों के बस पृष्ठ बदले होंगे
वैसी वैसी ही होंगी गुस्ताखियाँ
धींगा मस्ती, किस्से कहानियाँ
चालीस साल
घर की औरतें जुटी ही मिलेंगी
दूध दुहा जा चुका होगा
मवेशी रँभाते चारा मांग रहे होंगे
लौटना भी तो क्रिया ही है
जंग को गए सिपाही सी
हाँ! लौटते हैं जब
आकाश थोड़ा झुक ही जाता है
और माटी का सोंधापन
नथुनों तक आते आते
कहीं रूक-सा जाता है
चालीस साल बाद
जिस हवा, धरती, प्रकृति को दोहरा रहा हूँ
दरअसल फिर से वहाँ
ख़ुद को ही पाना चाह रहा हूँ ।